खींच ली थी इक लकीर-ए-ना-रसा ख़ुद दरमियाँ
फ़ासला-दर-फ़ासला-दर-फ़ासला होना ही था
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बाल बाल दुनिया पर उस का ही इजारा है
ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप
ज़ेर-ए-बाम गुम्बद-ए-ख़ज़रा अज़ाँ
पुराने रंग में अश्क-ए-ग़म ताज़ा मिलाता हूँ
रहरव-ए-राह-ए-ख़राबात-ए-चमन
सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं
बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की
अँधेरों से उलझने की कोई तदबीर करना है
टेक लगा कर बैठा हूँ मैं जिस बूढ़ी दीवार के साथ
मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता
अब ज़मीं पर क़दम नहीं टिकते