सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं
लगता है पहले जुर्म को दोहरा रहा हूँ मैं
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खींच ली थी इक लकीर-ए-ना-रसा ख़ुद दरमियाँ
बेचैनी के लम्हे साँसें पत्थर की
बे-मुरव्वत हैं तो वापस ही उठा ले शब-ओ-रोज़
शुऊर-ओ-फ़िक्र से आगे निकल भी सकता है
कूज़ा-गर देख अगर चाक पे आना है मुझे
दूर तक इक सराब देखा है
मिरी ख़ाक में विला का न कोई शरार होता
ख़ामोश ज़मज़मे हैं मिरा हर्फ़-ए-ज़ार चुप
दश्त में धूप की भी कमी है कहाँ