हम जुड़े रहते थे आबाद मकानों की तरह
अब ये बातें हमें लगती हैं फ़सानों की तरह
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ये मौज मौज बनी किस की शक्ल सी 'ताबिश'
तिलिस्म-ए-ख़्वाब से मेरा बदन पत्थर नहीं होता
शायद किसी बला का था साया दरख़्त पर
मेरा रंज-ए-मुस्तक़िल भी जैसे कम सा हो गया
पाँव पड़ता हुआ रस्ता नहीं देखा जाता
उन आँखों में कूदने वालो तुम को इतना ध्यान रहे
अब परिंदों की यहाँ नक़्ल-ए-मकानी कम है
इश्क़ की जोत जगाने में बड़ी देर लगी
पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था
वो चाँद हो कि चाँद सा चेहरा कोई तो हो
चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में
दिल दुखों के हिसार में आया