मैं जिस सुकून से बैठा हूँ इस किनारे पर
सुकूँ से लगता है मेरा क़याम आख़िरी है
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उन आँखों में कूदने वालो तुम को इतना ध्यान रहे
हँसने नहीं देता कभी रोने नहीं देता
अब अधूरे इश्क़ की तकमील ही मुमकिन नहीं
बैठे रहने से तो लौ देते नहीं ये जिस्म ओ जाँ
हवा-ए-तेज़ तिरा एक काम आख़िरी है
हम ने चुप रह के जो एक साथ बिताया हुआ है
मसरूफ़ हैं कुछ इतने कि हम कार-ए-मोहब्बत
चराग़-ए-सुब्ह जला कोई ना-शनासी में
शिकस्ता-ख़्वाब-ओ-शिकस्ता-पा हूँ मुझे दुआओं में याद रखना
उसे मैं ने नहीं देखा
फिर इस के ब'अद ये बाज़ार-ए-दिल नहीं लगना
हम जुड़े रहते थे आबाद मकानों की तरह