ये ज़मीं तो है किसी काग़ज़ी कश्ती जैसी
बैठ जाता हूँ अगर बार न समझा जाए
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मकीं जब नींद के साए में सुस्ताने लगें 'ताबिश'
ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता
ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
मिलती नहीं है नाव तो दरवेश की तरह
पस-ए-ग़ुबार मदद माँगते हैं पानी से
तेरी आँखों से अपनी तरफ़ देखना भी अकारत गया
ख़ूब इतना था कि दीवार पकड़ कर निकला
न ख़्वाब ही से जगाया न इंतिज़ार किया
शब की शब कोई न शर्मिंदा-ए-रुख़स्त ठहरे
अभी तो घर में न बैठें कहो बुज़ुर्गों से
बचपन का दौर अहद-ए-जवानी में खो गया
पानी आँख में भर कर लाया जा सकता है