ज़ीस्त दामन छुड़ाए जाती है
मौत आँखें चुराए जाती है
थक के बैठा हूँ इक दोराहे पर
दोपहर सर पे आए जाती है
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फ़क़ीर किस दर्जा शादमाँ थे हुज़ूर को कुछ तो याद होगा
मैं बद-नसीब हूँ मुझ को न दे ख़ुशी इतनी
कहते हैं उम्र-ए-रफ़्ता कभी लौटती नहीं
ऐ मिरा जाम तोड़ने वाले
न ख़ुदा है न नाख़ुदा साथी
गिरते हैं लोग गर्मी-ए-बाज़ार देख कर
ख़ाली है अभी जाम मैं कुछ सोच रहा हूँ
तौबा का तकल्लुफ़ कौन करे हालात की निय्यत ठीक नहीं
इतना तो दोस्ती का सिला दीजिए मुझे
मौत का सर्द हाथ भी साक़ी
ज़बाँ पर आप का नाम आ रहा था
लोग कहते हैं कि तुम से ही मोहब्बत है मुझे