लौट गए सब सोच के घर में कोई नहीं है
और ये हम कि अंधेरा कर के बैठ गए हैं
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उतरे थे मैदान में सब कुछ ठीक करेंगे
कभी देखो तो मौजों का तड़पना कैसा लगता है
कुछ अपना पता दे कर हैरान बहुत रक्खा
ये क़ैद है तो रिहाई भी अब ज़रूरी है
लोगों ने बहुत चाहा अपना सा बना डालें
दम-ब-दम मुझ पे चला कर तलवार
ज़वाल-ए-जिस्म को देखो तो कुछ एहसास हो इस का
दूर बस्ती पे है धुआँ कब से
साए फैल गए खेतों पर कैसा मौसम होने लगा
पाँव रुकते ही नहीं ज़ेहन ठहरता ही नहीं
दिन गुज़रते हैं गुज़रते ही चले जाते हैं