रुके तो गर्दिशें उस का तवाफ़ करती हैं
चले तो उस को ज़माने ठहर के देखते हैं
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मैं और तू
न हरीफ़-ए-जाँ न शरीक-ए-ग़म शब-ए-इंतिज़ार कोई तो हो
ख़ामोश हो क्यूँ दाद-ए-जफ़ा क्यूँ नहीं देते
मर गए प्यास के मारे तो उठा अब्र-ए-करम
वो ख़ार ख़ार है शाख़-ए-गुलाब की मानिंद
तू ख़ुदा है न मिरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
चल निकलती हैं ग़म-ए-यार से बातें क्या क्या
हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा
शहर-वालों की मोहब्बत का मैं क़ाएल हूँ मगर
पहले से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
इस से बढ़ कर कोई इनआम-ए-हुनर क्या है 'फ़राज़'
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है