ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
तू आबजू इसे समझा अगर तो चारा नहीं
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हज़रात-ए-इंसाँ
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
नाला है बुलबुल-ए-शोरीदा तिरा ख़ाम अभी
फ़क़्र के हैं मोजज़ात ताज ओ सरीर ओ सिपाह
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
गोरिस्तान-ए-शाही
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
अक़्ल को तन्क़ीद से फ़ुर्सत नहीं
ये हूरयान-ए-फ़रंगी दिल ओ नज़र का हिजाब