आप की राह में क्या क्या न सहा था हम ने
आप ने फिर भी वफ़ादार नहीं माना था
और जब हँसते हुए खेल गए जान पे हम
कह दिया आप ने मुँह फेर के दीवाना था
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हक़ीर ख़ाक के ज़र्रे थे आसमान हुए
ये क़दम क़दम बलाएँ ये सवाद-ए-कू-ए-जानाँ
ख़्वाब जो बिखर गए
रफ़्ता रफ़्ता सब साथी साथ छोड़ आए थे
रात तो काली थी लेकिन रात गुज़र कर सुब्ह जो आई
इल्तिजा
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
लौटे कुछ इस तरह तिरी जल्वा-सरा से हम
दिल पे वो वक़्त भी किस दर्जा गिराँ होता है
अगर मज़ार पे सूरज भी ला के रख दोगे
सबक़ मिला है ये अपनों का तजरबा कर के
आबलों का शिकवा क्या ठोकरों का ग़म कैसा