एक लम्हे को तुम मिले थे मगर
उम्र भर दिल को हम मसलते रहे
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हैराँ हूँ कि ये कौन सा दस्तूर-ए-वफ़ा है
हम हद-ए-इंदिमाल से भी गए
अज़ाब-ए-बे-दिली-ए-जान-ए-मुब्तला न गया
बस एक ही कैफ़िय्यत-ए-दिल सुब्ह-ओ-मसा है
आँखों में कहीं उस के भी तूफ़ाँ तो नहीं था
हम ने चाहा था तेरी चाल चलें
इक तेरी बे-रुख़ी से ज़माना ख़फ़ा हुआ
दरवाज़ा तिरे शहर का वा चाहिए मुझ को
उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
ग़म की गर्मी से दिल पिघलते रहे
ज़िंदगी होने का दुख सहने में है