मुझ से क्या बात लिखानी है कि अब मेरे लिए
कभी सोने कभी चाँदी के क़लम आते हैं
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हम तो कुछ देर हँस भी लेते हैं
न जी भर के देखा न कुछ बात की
मैं बोलता हूँ तो इल्ज़ाम है बग़ावत का
वो शख़्स जिस को दिल ओ जाँ से बढ़ के चाहा था
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
वो इत्र-दान सा लहजा मिरे बुज़ुर्गों का
शाम आँखों में आँख पानी में
वो बड़ा रहीम ओ करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
मुद्दत से इक लड़की के रुख़्सार की धूप नहीं आई
कोई फूल धूप की पत्तियों में हरे रिबन से बँधा हुआ
फिर याद बहुत आएगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम