पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
मैं मोम हूँ उस ने मुझे छू कर नहीं देखा
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मिरे साथ चलने वाले तुझे क्या मिला सफ़र में
ये एक पेड़ है आ इस से मिल के रो लें हम
दिल उजड़ी हुई एक सराए की तरह है
ख़ानदानी रिश्तों में अक्सर रक़ाबत है बहुत
तुम मुझे छोड़ के जाओगे तो मर जाऊँगा
ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिए साए
न उदास हो न मलाल कर किसी बात का न ख़याल कर
नहीं है मेरे मुक़द्दर में रौशनी न सही
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
मैं तमाम तारे उठा उठा के ग़रीब लोगों में बाँट दूँ
हम दिल्ली भी हो आए हैं लाहौर भी घूमे
वो माथा का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे