तहज़ीब के लिबास उतर जाएँगे जनाब
डॉलर में यूँ नचाएगी इक्कीसवीं सदी
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जिस दिन से चला हूँ मिरी मंज़िल पे नज़र है
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
गले में उस के ख़ुदा की अजीब बरकत है
प्यार की नई दस्तक दिल पे फिर सुनाई दी
रात का इंतिज़ार कौन करे
पहचान अपनी हम ने मिटाई है इस तरह
पत्थर मुझे कहता है मिरा चाहने वाला
है अजीब शहर की ज़िंदगी न सफ़र रहा न क़याम है
परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता
वो अपने घर चला गया अफ़्सोस मत करो
बे-वक़्त अगर जाऊँगा सब चौंक पड़ेंगे
हम दिल्ली भी हो आए हैं लाहौर भी घूमे