उतर भी आओ कभी आसमाँ के ज़ीने से
तुम्हें ख़ुदा ने हमारे लिए बनाया है
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काग़ज़ में दब के मर गए कीड़े किताब के
वो शख़्स जिस को दिल ओ जाँ से बढ़ के चाहा था
तारों भरी पलकों की बरसाई हुई ग़ज़लें
मुझ से बिछड़ के ख़ुश रहते हो
कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते
बिछी थीं हर तरफ़ आँखें ही आँखें
यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो
कितनी सच्चाई से मुझ से ज़िंदगी ने कह दिया
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
कहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई
गुफ़्तुगू उन से रोज़ होती है