आती है बात बात मुझे बार बार याद
कहता हूँ दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में
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ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम
उस के दर तक किसे रसाई है
रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी
रूह किस मस्त की प्यासी गई मय-ख़ाने से
रहा न दिल में वो बेदर्द और दर्द रहा
शिरकत-ए-ग़म भी नहीं चाहती ग़ैरत मेरी
वो दिन गए कि 'दाग़' थी हर दम बुतों की याद
हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुम को
क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है
मिलाते हो उसी को ख़ाक में जो दिल से मिलता है
रुख़-ए-रौशन के आगे शम्अ रख कर वो ये कहते हैं
देख कर जौबन तिरा किस किस को हैरानी हुई