दमक रहा है जो नस नस की तिश्नगी से बदन
इस आग को न तिरा पैरहन छुपाएगा
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कौन देता है मोहब्बत को परस्तिश का मक़ाम
सोज़-ए-जुनूँ को दिल की ग़िज़ा कर दिया गया
लोग यूँ देख के हँस देते हैं
रानाई-ए-कौनैन से बे-ज़ार हमीं थे
जब किसी की याद आ कर तिलमिला जाता है दिल
दोपहर होने को है सन्ना गया जंगल तमाम
हम चटानें हैं कोई रेत के साहिल तो नहीं
जीने के लिए जो मर रहे हैं
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
ये कौन हँस के सेहन-ए-चमन से गुज़र गया
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
ये उजालों के जज़ीरे ये सराबों के दयार