मैं जिस रफ़्तार से तूफ़ाँ की जानिब बढ़ता जाता हूँ
उसी रफ़्तार से नज़दीक साहिल होता जाता है
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रहे जो ज़िंदगी में ज़िंदगी का आसरा हो कर
कुछ अपने साज़-ए-नफ़स की न क़द्र की तू ने
हौज़ में गिर पड़ा गुलाब का फूल
परस्तिश-ए-ग़म का शुक्रिया क्या तुझे आगही नहीं
जीने के लिए जो मर रहे हैं
जो ले के उन की तमन्ना के ख़्वाब निकलेगा
बैठे बैठे उन की महफ़िल याद आ जाती है जब
जब कोई जुगनू चमकता है अँधेरी रात में
शोरिश-ए-इश्क़ में है हुस्न बराबर का शरीक
नज़र फ़रेब-ए-क़ज़ा खा गई तो क्या होगा
आज भड़की रग-ए-वहशत तिरे दीवानों की
मिरे मिटाने की तदबीर थी हिजाब न था