फ़रार हो गई होती कभी की रूह मिरी
बस एक जिस्म का एहसान रोक लेता है
Gulzar
Parveen Shakir
Rahat Indori
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Jaun Eliya
Anwar Masood
Wasi Shah
Allama Iqbal
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Javed Akhtar
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1339) Peoples Rate This
कुछ भी न कहना कुछ भी न सुनना लफ़्ज़ में लफ़्ज़ उतरने देना
मैं बिछड़ों को मिलाने जा रहा हूँ
झगड़े ख़ुदा से हो गए अहद-ए-शबाब में
बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र
हद्द-ए-बदन में मेरी ज़ात आ नहीं रही है
तभी वहीं मुझे उस की हँसी सुनाई पड़ी
मैं जब कभी उस से पूछता हूँ कि यार मरहम कहाँ है मेरा
किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
देखते ही देखते खोने से पहले देखते
हमेशा का ये मंज़र है कि सहरा जल रहा है
दोनों का ला-शुऊ'र है इतना मिला हुआ
फिर तुझे छू के देखता हूँ मैं