मेरे हर मिस्रे पे उस ने वस्ल का मिस्रा लगाया
सब अधूरे शेर शब भर में मुकम्मल हो गए थे
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किस सलीक़े से वो मुझ में रात-भर रह कर गया
वो महफ़िलें पुरानी अफ़्साना हो रही हैं
क्या बैठ जाएँ आन के नज़दीक आप के
तराना-ए-रेख़्ता
वो चाँद कह के गया था कि आज निकलेगा
बड़ा वसीअ है उस के जमाल का मंज़र
सब के जैसी न बना ज़ुल्फ़ कि हम सादा-निगाह
तह-ए-बदन कहीं बेदार होता जाता हूँ
शुस्ता ज़बाँ शगुफ़्ता बयाँ होंठ गुल-फ़िशाँ
रात बहुत शराब पी रात बहुत पढ़ी नमाज़
कूज़ा-गर
कभी हँसते नहीं कभी रोते नहीं कभी कोई गुनाह नहीं करते