न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
न दामनों में यहाँ ख़ाक-ए-रहगुज़र बाँधो
मिसाल निकहत-ए-गुल महमिल-ए-सफ़र बाँधो
इस आइने में कोई अक्स यूँ न उभरेगा
नज़र से सिलसिला-ए-दानिश-ए-नज़र बाँधो
जो साहिबान-ए-बसीरत थे बे-लिबास हुए
फ़ज़ीलतों की ये दस्तार किस के सर बाँधो
सफ़ीर-ए-जाँ हूँ हिसार-ए-बदन में क्या ठहरूँ
चमन-परस्तो न ख़ुशबू के बाल-ओ-पर बाँधो
न टूट जाए कि नाज़ुक है रिश्ता-ए-अन्फ़ास
तनाब-ए-खेमा-ए-हस्ती सँभाल कर बाँधो
कहाँ हर एक शनावर गुहर ब-कफ़ निकला
समुंदरों से तवक़्क़ो' न इस क़दर बाँधो
हर एक हाथ में है संग सद-हज़ार-आशोब
फिर ऐसे वक़्त में शाख़ों से क्यूँ समर बाँधो
नमक छिड़कते रहो ये भी है मसीहाई
ये क्या ज़रूरी कि मरहम ही ज़ख़्म पर बाँधो
फिरे है कब से परेशाँ ये ज़ख़्म-ख़ुर्दा हिरन
जुनूँ को दश्त से ले जा के अपने घर बाँधो
गया वो दौर कि जब बर्फ़ बर्फ़ थे अल्फ़ाज़
गिरह में अब ये दहकते हुए शरर बाँधो
अदब नहीं है रियाज़ी का मसअला यारो
हर एक शख़्स पे क्यूँ तोहमत-ए-हुनर बाँधो
ये सिंफ़ आबरू-ए-फ़न्न-ए-शाइरी है 'फ़ज़ा'
ग़ज़ल कहो तो मज़ामीन मो'तबर बाँधो
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