जी में आता है कि इस कान से सूराख़ करूँ
खींच कर दूसरी जानिब से निकालूँ उस को
सारी की सारी निचोड़ूँ ये रगें, साफ़ करूँ
भर दूँ रेशम की जलाई हुई बुक्की इन में
क़हक़हाती हुई इस भीड़ में शामिल हो कर
मैं भी इक बार हँसूँ, ख़ूब हँसूँ, ख़ूब हँसूँ
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चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता
ये शुक्र है कि मिरे पास तेरा ग़म तो रहा
तिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई की
दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
बे-सबब मुस्कुरा रहा है चाँद
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
गर्म लाशें गिरीं फ़सीलों से
वक़्त-1
तुम्हारे ख़्वाब से हर शब लिपट के सोते हैं