मैं उड़ते हुए पंछियों को डराता हुआ
कुचलता हुआ, घास की कलग़ियाँ
गिराता हुआ गर्दनें इन दरख़्तों की, छुपता हुआ
जिन के पीछे से
निकला चला जा रहा था वो सूरज
तआक़ुब में था उस के मैं!
गिरफ़्तार करने गया था उसे
जो ले के मिरी उम्र का एक दिन भागता जा रहा था!
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भरे हैं रात के रेज़े कुछ ऐसे आँखों में
चंद उम्मीदें निचोड़ी थीं तो आहें टपकीं
रूह देखी है कभी!
डाइरी
कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे
ये रोटियाँ हैं ये सिक्के हैं और दाएरे हैं
कोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती है
रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले
किनारे पर कोई आया था
जब भी ये दिल उदास होता है
आदत
नज़्म