आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ
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वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था
एक परवाज़ दिखाई दी है
ये दिल भी दोस्त ज़मीं की तरह
ऐसा ख़ामोश तो मंज़र न फ़ना का होता
मकान
ग़ालिब
चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
दस्तक
सब्र हर बार इख़्तियार किया
एक सन्नाटा दबे-पाँव गया हो जैसे
दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई
हवा के सींग न पकड़ो खदेड़ देती है