नश्शा-ए-रंग से है वाशुद-ए-गुल
मस्त कब बंद-ए-क़बा बाँधते हैं
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वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
'ग़ालिब' तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को
ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं
फिर कुछ इक दिल को बे-क़रारी है
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है
हुई ताख़ीर तो कुछ बाइस-ए-ताख़ीर भी था
फ़र्दा-ओ-दी का तफ़रक़ा यक बार मिट गया
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
की मिरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा