इक तबस्सुम का भरम आबाद होंटों पर किए
जी रहे हैं लोग अपनी अपनी वीरानी के साथ
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Habib Jalib
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Gulzar
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ग़ार वालों की तरह निकला है वो कमरे से आज
इक ज़रूरत है जो तहवील तक आ पहुँची है
तअल्लुक़ की कड़ी टूटी नहीं है
ख़ुशनुमा मंज़र भी सब धुंधले नज़र आते हैं यार
फ़क़त मिलना-मिलाना कम हुआ है
आहटें सुन कर ही मर जाती है सहराओं की ख़ाक
सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं
ऐ मिरे मूनिस ओ ग़म-ख़्वार मुझे मरने दे
वक़्त के ज़ालिम समुंदर में परेशानी के साथ