ख़ुशनुमा मंज़र भी सब धुंधले नज़र आते हैं यार
जब दिलों में भी उतर जाती है सहराओं की ख़ाक
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फ़क़त मिलना-मिलाना कम हुआ है
आहटें सुन कर ही मर जाती है सहराओं की ख़ाक
वक़्त के ज़ालिम समुंदर में परेशानी के साथ
ग़ार वालों की तरह निकला है वो कमरे से आज
इक ज़रूरत है जो तहवील तक आ पहुँची है
इक तबस्सुम का भरम आबाद होंटों पर किए
ऐ मिरे मूनिस ओ ग़म-ख़्वार मुझे मरने दे
सुब्ह का मंज़र है लेकिन गुल कोई ताज़ा नहीं
तअल्लुक़ की कड़ी टूटी नहीं है