सुकूत-ए-आब में
इक बे-ख़बर मछली
किसी बे-मेहर काँटे को निगल कर
जूँ ही सतह-ए-आब से
उधर उठ आती है
तड़पती है
तो उस के साथ की
हर बा-ख़बर मछली समझती है
कि उस के एक साथी को
किसी दीवानगी ने आ दबोचा है
Mir Taqi Mir
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Habib Jalib
Javed Akhtar
Rahat Indori
Gulzar
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Ahmad Faraz
Parveen Shakir
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(516) Peoples Rate This
हँसी में टाल रहे हो तुम उस के रोने को
सुबुक मुझ को मोहब्बत में ये कज-उफ़्ताद करता है
तलफ़ करेगी कब तक आरज़ू की जान आरज़ू
होने को अब क्या देखिए क्या कुछ है और क्या कुछ नहीं
ये नश्शा-ए-आगाही ख़तरनाक है सर में
तलाश फ़रेब-ए-मुतलक़ की
देखा कि चले जाते थे सब शौक़ के मारे
कमान सौंप के दुश्मन को अपने लश्कर की
सब है ज़ेर-ए-बहस जो ज़ाहिर है या पोशीदा है
गए हैं देस को हम अपने छोड़ कर ही नहीं
इक कहानी सुनोगी
गुदाज़ तक ही ख़राबी हुनर सँभालेगा