अब दुआओं के लिए उठते नहीं हैं हाथ भी
बे-यक़ीनी का तो आलम था मगर ऐसा न था
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कैसे कहें दर-ब-दर नहीं हम
ख़ुद अपने आप से ये गिला उम्र भर किया
छुपे हुए थे जो दिल में वो डर पुराने थे
बज़्म में वो सरफ़राज़ी की अलामत ले गए
रौशनियाँ बदन बदन तेरे मिरे लहू से हैं
ख़ुद से ना-ख़ुश ग़ैर से बेज़ार होना था हुए
किसी के सामने इज़हार-ए-दर्द-ए-जाँ न करूँ
सूफ़ी-ए-शहर मिरे हक़ में दुआ क्या करता
सदा-कार
मिला भी क्या उसे तौहीन-ए-रंग-ओ-बू कर के
बुझा के रख दे ये कोशिश बहुत हवा की थी
साए की उम्मीद थी तारीकियाँ फैला गया