यूँ देखिए तो आँधी में बस इक शजर गया
लेकिन न जाने कितने परिंदों का घर गया
जैसे ग़लत पते पे चला आए कोई शख़्स
सुख ऐसे मेरे दर पे रुका और गुज़र गया
मैं ही सबब था अब के भी अपनी शिकस्त का
इल्ज़ाम अब की बार भी क़िस्मत के सर गया
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जिस को भी देखो तिरे दर का पता पूछता है
हर एक साँस ही हम पर हराम हो गई है
साथ 'ग़ालिब' के गई फ़िक्र की गहराई भी
न जिस्म साथ हमारे न जाँ हमारी तरफ़
बहाना कोई तो ऐ ज़िंदगी दे
ख़ज़ाना कौन सा उस पार होगा
जितनी बटनी थी बट चुकी ये ज़मीं
दिल भी बच्चे की तरह ज़िद पे अड़ा था अपना
कुछ इस तरह गुज़ारा है ज़िंदगी को हम ने
कुछ परिंदों को तो बस दो चार दाने चाहिएँ
शौक़ की हद को अभी पार किया जाना है
ये कब चाहा कि मैं मशहूर हो जाऊँ