उस से कहना कि कभी आ के मिले
हम से रंजिश का सबब जो भी हो
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ख़्वाब उस के हैं जो चुरा ले जाए
उन झील सी गहरी आँखों में
शेर-ओ-सुख़न का शहर नहीं ये शहर-ए-इज़्ज़त-ए-दारां है
बारहा हम पे क़यामत गुज़री
अपनी बे-चेहरगी में पत्थर था
कहाँ जाते हैं आगे शहर-ए-जाँ से
यूँ गँवाता है कोई जान-ए-अज़ीज़
कुछ न कुछ सोचते रहा कीजे
अक्स-ए-ज़ुल्फ़-ए-रवाँ नहीं जाता
तीर जैसे कमान के आगे
जब तक दौर-ए-जाम चलेगा
कौन दिल की ज़बाँ समझता है