अहबाब मुलाक़ात को जो आते हैं
नाहक़ मुझे ग़म दे के चले जाते हैं
मुझ को है वही शाम-ए-जवानी का ख़याल
अब सुबह है मेरे मुँह पे फ़रमाते हैं
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जो मुझे मर्ग़ूब हो वो सोगवारी चाहिए
ज़िंदगी कहते हैं किस को मौत किस का नाम है
शराब-ए-नाब का क़तरा जो साग़र से निकल जाए
है बे-ख़ुद वस्ल में दिल हिज्र में मुज़्तर सिवा होगा
अगर दिला ग़म-ए-गेसू-ए-यार बढ़ जाता
दुनिया से सभी बुरे भले जाएँगे
है अंधेरा तो समझता हूँ शब-ए-गेसू है
मालूम था तकलीफ़ सिवा गुज़रेगी
हाए शर्म-ए-दिलबरी उस दिलरुबा के हाथ है
मार डालेगी हमें ये ख़ुश-बयानी आप की
अब और ज़मीन-ओ-आसमाँ पैदा हो
कुछ अहल-ए-ज़मीं हाल नया कहते हैं