वो जिस को मोहब्बत की रविश कहते हैं
जज़्बात की हम उस को तपिश कहते हैं
वो चीज़ जिसे हुस्न समझते वो हैं
उस को ही तो हम जिंसी कशिश कहते हैं
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लिक्खे हैं फ़क़ीर ने जो शाही अल्फ़ाज़
उस हस्ती-ए-मंजली से विर्से में मिला
तख़्लीक़ के सक़्फ़-ओ-बाम पाटे जाएँ
फूलों की मिली बल्ख़ से थाली मुझ को
आशिक़ के लिए रंज-ओ-अलम रक्खे हैं
इक बोलती सूरत का नमूना क्या है
तू है कि एलोरा की कोई मूर्ती है
हम साँप पकड़ लेते हैं बीनों के बग़ैर
तख़्लीक़ में मोतकिफ़ ये होना मेरा
रहमत की कड़ी धूप में लेटूँ मौला
उन की तो ये इरफ़ानी मनाज़िल में से है
शब मेरी थी शाम मेरी दिन था मेरा