नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
अब तो 'सौदा' का बाजता है नाँव
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धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें
बरहमन बुत-कदे के शैख़ बैतुल्लाह के सदक़े
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
यारो वो शर्म से जो न बोला तो क्या हुआ
अबस तू घर बसाता है मिरी आँखों में ऐ प्यारे
गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं