मिरे मालिक मुझे इस ख़ाक से बे-घर न करना
मोहब्बत के सफ़र में चलते चलते थक गया हूँ मैं
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हमें तो टूटी हुई कश्तियाँ नहीं दिखतीं
अब कू-ए-सनम चार क़दम ही का सफ़र है
उट्ठे जो तेरे दर से तो दुनिया सिमट गई
घनी रात
मुझे ख़रीद रहे हैं मिरे सभी अपने
बदन का बोझ उठाना भी अब मुहाल हुआ