इक दश्त-ए-बे-अमाँ का सफ़र है चले-चलो
रुकने में जान ओ दिल का ज़रर है चले-चलो
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माँगने वालों को क्या इज़्ज़त ओ रुस्वाई से
बिछड़े हुए ख़्वाब आ के पकड़ लेते हैं दामन
दफ़्तर-ए-लौह ओ क़लम या दर-ए-ग़म खुलता है
बाम ओ दर ओ दीवार को ही घर नहीं कहते
याद आई न कभी बे-सर-ओ-सामानी में
उम्र को करती हैं पामाल बराबर यादें
अँधेरा इतना नहीं है कि कुछ दिखाई न दे
ठहरी है तो इक चेहरे पे ठहरी रही बरसों
हज़ारों साल सफ़र कर के फिर वहीं पहुँचे
कहीं शुनवाई नहीं हुस्न की महफ़िल के ख़िलाफ़
मौत की जुस्तुजू
ख़ुश्बू है कभी गुल है कभी शम्अ कभी है