वक़्त के तेज़ गाम दरिया में
तू किसी मौज की तरह उभरी
आँखों आँखों में हो गई ओझल
और मैं एक बुलबुले की तरह
इसी दरिया के इक किनारे पर
नरकुलों के मुहीब झावे में
ऐसा उलझा कि ये भी भूल गया
बुलबुले की बिसात ही क्या थी
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यूँ लगे तेरे तज़्किरा से अगर
कुछ इतना ख़ौफ़ का मारा हुआ भी प्यार न हो
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
तहरीर से वर्ना मिरी क्या हो नहीं सकता
ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं
मिली हवाओं में उड़ने की वो सज़ा यारो
अपने साए को इतना समझाने दे
मुझे बुझा दे मिरा दौर मुख़्तसर कर दे
क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैं ने किया
इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे