जहाँ लम्हा-ए-शाम बिखेर दिया
वहीं इक पैग़ाम बिखेर दिया
ख़ुद उस के क़दमों में अपना
सब पुख़्ता-ओ-ख़ाम बिखेर दिया
चालाक परिंदा था वो भी
हम ने भी दाम बिखेर दिया
जितनी तकलीफ़ इकट्ठा की
उतना आराम बिखेर दिया
दरवाज़ा खोला जल्दी से
और सारा काम बिखेर दिया
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साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
झूट बोला है तो क़ाएम भी रहो उस पर 'ज़फ़र'
इतना मानूस भी होने की ज़रूरत क्या थी
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है