इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'
प्यास उस की सिर्फ़ बुझती है हमारे ख़ून से
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इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
हँसी में हक़ जता कर घर-जमाई छीन लेता है
निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता
शौहरों से बीबियाँ लड़ती हैं छापा-मार जंग
शरीर बच्चे
मोहब्बत की जिस को ख़ुमारी लगे
कव्वा और कोयल
किसी का हो नहीं सकता है कोई काम रोज़े में
नन्हा पौदा