यूँही किसी की कोई बंदगी नहीं करता
बुतों के चेहरों पे तेवर ख़ुदा के रक्खे थे
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ख़ुश-गुमाँ हर आसरा बे-आसरा साबित हुआ
कभी दुआ तो कभी बद-दुआ से लड़ते हुए
तमाम फूल महकने लगे हैं खिल खिल कर
क्या ख़बर किस मोड़ पर बिखरे मता-ए-एहतियात
रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया
बढ़े कुछ और किसी इल्तिजा से कम न हुए
हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है
बे-क़नाअत क़ाफ़िले हिर्स-ओ-हवा ओढ़े हुए
मिरी उम्मीद का सूरज कि तेरी आस का चाँद