आज पी कर भी वही तिश्ना-लबी है साक़ी
लुत्फ़ में तेरे कहीं कोई कमी है साक़ी
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कुछ तो है वैसे ही रंगीं लब ओ रुख़्सार की बात
नवा-ए-शौक़ में शोरिश भी है क़रार भी है
फ़ुग़ान-ए-दर्द में भी दर्द की ख़लिश ही नहीं
ग़ैरत-ए-इश्क़ का ये एक सहारा न गया
ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है
हुस्न काफ़िर था अदा क़ातिल थी बातें सेहर थीं
हमें तो मय-कदे का ये निज़ाम अच्छा नहीं लगता
जो तिरे दर से उठा फिर वो कहीं का न रहा
जब्र-ए-हालात का तो नाम लिया है तुम ने
आज से पहले तिरे मस्तों की ये ख़्वारी न थी
हम न इस टोली में थे यारो न उस टोली में थे
ये दौर मुझ से ख़िरद का वक़ार माँगे है