आज पी कर भी वही तिश्ना-लबी है साक़ी
लुत्फ़ में तिरे कहीं कोई कमी है साक़ी
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मय-कशी के भी कुछ आदाब बरतना सीखो
तुम्हारी मस्लहत अच्छी कि अपना ये जुनूँ बेहतर
लोग माँगे के उजाले से हैं ऐसे मरऊब
वो जिएँ क्या जिन्हें जीने का हुनर भी न मिला
हम जिस के हो गए वो हमारा न हो सका
जब कभी बात किसी की भी बुरी लगती है
हम न इस टोली में थे यारो न उस टोली में थे
एक दीवाने को इतना ही शरफ़ क्या कम है
ख़याल जिन का हमें रोज़-ओ-शब सताता है
नवा-ए-शौक़ में शोरिश भी है क़रार भी है
अब धनक के रंग भी उन को भले लगते नहीं