Couplets Poetry

ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं

ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश

यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला

वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी

तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा

सुन ऐ कोह-ओ-दमन को सब्ज़ ख़िलअत बख़्शने वाले

सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं

शौक़ कितने फ़रेब देता है

क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी

निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे

नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया

मौसम-ए-गुल है बादल छाए खनक रहे हैं पैमाने

मौज-ए-तख़य्युल गुल का तबस्सुम परतव-ए-शबनम बिजली का साया

कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ

कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर ऐ दोस्त

कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की

कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना आ गया

दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं

छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना

बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी

बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है

बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ

ऐ अक़्ल साथ रह कि पड़ेगा तुझी से काम

अफ़सोस किसी से मिट न सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी

अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं

आ दोस्त साथ आ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ

इसी ख़याल में हर शाम-ए-इंतिज़ार कटी

इस चश्म-ए-सियह-मस्त पे गेसू हैं परेशाँ

सदियों के बाद होश में जो आ रहा हूँ मैं

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

खींच ली थी इक लकीर-ए-ना-रसा ख़ुद दरमियाँ

ज़ुल्फ़िकार नक़वी

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