कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की
वगर्ना रास किसे है हुआ ज़माने की
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बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं
नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया
बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे
अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं
सुन ऐ कोह-ओ-दमन को सब्ज़ ख़िलअत बख़्शने वाले
कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ