बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ
जिधर से वो गुज़र गए उबल पड़ीं जवानियाँ
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कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ
कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की
शौक़ कितने फ़रेब देता है
तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा
ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं
अफ़सोस किसी से मिट न सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे
बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है
मौसम-ए-गुल है बादल छाए खनक रहे हैं पैमाने
वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना आ गया