तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा
ज़िंदगी आग के शोलों में बसर होती है
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बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर ऐ दोस्त
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे
मौज-ए-तख़य्युल गुल का तबस्सुम परतव-ए-शबनम बिजली का साया
शौक़ कितने फ़रेब देता है
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
सुन ऐ कोह-ओ-दमन को सब्ज़ ख़िलअत बख़्शने वाले
आ दोस्त साथ आ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं