कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ
दफ़्तर उलट रहा हूँ हर फूल हर कली का
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यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला
सुब्ह बिछड़ कर शाम का व'अदा शाम का होना सहल नहीं
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ
कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर ऐ दोस्त
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं
मौसम-ए-गुल है बादल छाए खनक रहे हैं पैमाने
कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
शौक़ कितने फ़रेब देता है
अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया