अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
कुछ वही महरम-ए-असरार नज़र आते हैं
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ऐ अक़्ल साथ रह कि पड़ेगा तुझी से काम
अफ़सोस किसी से मिट न सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी
वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया
कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की
तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी
कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ