जाति Poetry

क्यूँ मसाफ़त में न आए याद अपना घर मुझे

फ़ौक़ लुधियानवी

दिन हो कि हो वो रात अभी कल की बात है

फ़ीरोज़ाबी नातिक़ ख़ुसरो

नहीं कि ज़िंदा है बस एक मेरी ज़ात में इश्क़

एज़ाज़ काज़मी

सुल्तान अख़्तर पटना के नाम

रज़ा नक़वी वाही

सारी रात के बिखरे हुए शीराज़े पर रक्खी हैं

अज़्म शाकरी

कई अँधेरों के मिलने से रात बनती है

तरकश प्रदीप

बे-बसर आफ़ात से तकलीफ़ होती है मुझे

बशीर दादा

हश्र-ए-ज़ुल्मात से दिल डरता है

महमूद शाम

काली आग

नायाब

'साहिर-लुधियानवी के लिए

दानिश-ओ-फ़हम का जो बोझ सँभाले निकले

ज़ुहूर-उल-इस्लाम जावेद

मिरी ज़ात का हयूला तिरी ज़ात की इकाई

ज़ुहैर कंजाही

तुम जहाँ अपनी मसाफ़त के निशाँ छोड़ गए

ज़ुबैर रिज़वी

अपनी ज़ात के सारे ख़ुफ़िया रस्ते उस पर खोल दिए

ज़ुबैर रिज़वी

हम दोनों में कोई न अपने क़ौल-ओ-क़सम का सच्चा था

ज़ुबैर रिज़वी

दोनों हम-पेशा थे दोनों ही में याराना था

ज़ुबैर रिज़वी

ताबा कै

ज़िया जालंधरी

हम

ज़िया जालंधरी

आँखों में निहाँ है जो मुनाजात वो तुम हो

ज़िया जालंधरी

ग़ुबार-ए-इश्क़ से हस्ती को भरने वाला हूँ मैं

ज़ीशान साजिद

न अब्र से तिरा साया न तू निकलता है

ज़ेब ग़ौरी

तुम क्या साहब और तुम्हारी बात है क्या

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

चुप के सहरा में फ़क़त एक सदा कौन हूँ मैं

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

बदन के दोश पे साँसों का मक़बरा मैं हूँ

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

ऐ मिरी जान-ए-आरज़ू माने-ए-इल्तिफ़ात क्या

ज़हीर अहमद ताज

अब तो ये भी होने लगा है हम में उन में बात नहीं

ज़ाहिदुल हक़

वो हर्फ़-ओ-सौत-ओ-सदा

ज़ाहिदा ज़ैदी

तख़्ईल का दर खोले हुए शाम खड़ी है

ज़ाहिदा ज़ैदी

किसी मंज़र के पस-मंज़र में जा कर

ज़ाहिद शम्सी

नीम-लिबासी का नौहा

ज़ाहिद इमरोज़

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