यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला
वगर्ना क़ाफ़िले के क़ाफ़िले गुम हो नहीं सकते
Rahat Indori
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ऐ अक़्ल साथ रह कि पड़ेगा तुझी से काम
वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
तू ने वो सोज़ दिया है कि इलाही तौबा
कली की ख़ू है बहर-हाल मुस्कुराने की
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं
क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी
बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ
बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना आ गया
नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे